झाबुआ पद्मश्री अवार्ड - Padma Shri Award Jhabua
पद्मश्री श्री महेश शर्मा - 2019
राष्ट्रपति कोविंद ने सामाजिक कार्यों के लिए श्री महेश शर्मा को पद्मश्री प्रदान किया। महेश शर्मा एक सामाजिक कार्यकर्ता हैं, जो झाबुआ में आदिवासी गांवों के सतत विकास और आदिवासी परंपराओं के पुनरुद्धार के लिए काम कर रहे हैं. शिवगंगा के संस्थापक सदस्य और अध्यक्ष श्री महेश शर्मा को मध्यप्रदेश में आदिवासी ग्रामीण क्षेत्रों के सशक्तिकरण में उनके योगदान के लिए पद्मश्री से सम्मानित किया गया। मूलत: दतिया जिले के घोंगसी ग्राम के रहने वाले महेश ने 1998 से झाबुआ को अपना कर्म क्षेत्र बनाया तो फिर यहीं के होकर रह गए। 2007 तक वनवासी कल्याण परिषद के कर्मठ सिपाही बनकर जनहितैषी और जन जागरूकता अभियान चलाए। इसके बाद शिव गंगा प्रकल्प के रूप में झाबुआ को पानीदार बनाने का बीड़ा उठाया। शहर से लगी हाथीपावा की पहाड़ी पर शिवजी का हलमा अभियान के तहत 1 लाख 11 हजार जल संरचनाएं जनभागीदारी के जरिए बनवाई। इसका परिणाम है, करोड़ों लीटर पानी जमीन में उतरा और भूजल स्तर बढ़ा। इसके अलावा 350 गांवों में 5 हजार से अधिक छोटी बड़ी जल संरचनाओं का निर्माण कराया। यही कारण है, सूखे से जूझने वाले गांवों में जहां एक समय मक्का की खेती होती थी वहां गेहूं की पैदावार होने लगी है। वनवासी साल में दो फसल लेने लगे हैं।
महेश शर्मा ने अपने शिवगंगा अभियान के जरिऐ अभी तक झाबुआ जिले मे 1 लाख 11 हजार कंटुर ट्रेंच ; 350 गांवो मे 5000 से अधिक छोटी बडी जल संरचनाएं ; 110 गांवो मे 70000 से अधिक माता वन के पेड लगाऐ। 900 गांवो में 900 वाचनालय खोले गये। 12000 से ज्यादा आदिवासी युवाओं को सशक्तिकरण का प्रशिक्षण तथा 900 आदिवासी युवाओं को ग्राम इंजीनियर बनाया गया है। इसके अलावा महेश शर्मा ने शिवगंगा के जरिऐ आदिवासियो को जैविक खेती ओर बांस से रोजगार करने की तकनीक सिखाकर स्वावलंबी बनाया है। और उनके इन्ही प्रयासो को देखकर भारत सरकार उनको पद्मश्री सम्मान दिया गया।
पद्मश्री भूरी बाई -2021
हमारे गणतंत्र में चौथे सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार के रूप में, बहुत प्रतिष्ठित पद्म श्री पुरस्कार व्यक्तियों को कला, विज्ञान, साहित्य, सार्वजनिक मामलों, व्यापार और अन्य क्षेत्रों में उनकी विशिष्ट सेवाओं के लिए प्रदान किया जाता है। भूरी बाई की एक स्वदेशी कलाकार के रूप में असाधारण यात्रा और शैली में उनके योगदान की यह सम्मानजनक मान्यता समयोचित और महत्वपूर्ण है। यहां तक कि एमएपी की नवीनतम प्रदर्शनी भूरी बाई: माई लाइफ इज ए आर्टिस्ट भी समय से पहले है, जो कलाकार के बचपन से लेकर 17 साल की उम्र में उसके भोपाल जाने, स्वामीनाथन से मिलने और उसके जीवन को आत्मकथात्मक तरीके से चित्रित करती है।
झाबुआ जिले के पिटोल से आने वाली, भूरी बाई ने अपने घर की दीवारों पर चित्रकारी करके अपनी कलात्मक यात्रा शुरू की। भारत में अधिकांश आदिवासी समुदायों की तरह, भील संप्रदाय के अपने अनुष्ठानों, परंपराओं और उत्सवों का अनूठा सेट है, जिनमें से एक पिथौरा चित्र कला है। ऐतिहासिक रूप से, इन चित्रों को गांव में घरों की दीवारों पर केवल पुरुष प्रधान पुजारियों द्वारा चित्रित किया गया था। भूरी बाई बचपन में इन कलात्मक रीति-रिवाजों का बारीकी से देखती और समझती थीं। उसने धीरे-धीरे अपने घर की मिट्टी की दीवारों पर पेंट करना शुरू किया, और जैसे-जैसे वह बड़ी होती गई, भोपाल में भारत भवन में एक निर्माण श्रमिक के रूप में अपने खाली समय के दौरान कार्य करने लगी । यहीं पर प्रशंसित कलाकार जे. स्वामीनाथन ने भूरी बाई की प्रतिभा की खोज की और उन्हें पेशेवर रूप से अपने जुनून को आगे बढ़ाने के लिए प्रोत्साहित किया। एक संयोग से मुलाकात और विश्वास की छलांग ने भूरी बाई को अपने जीवन और करियर के अगले महत्वपूर्ण अध्याय की ओर अग्रसर किया। भूरी बाई न केवल अपने समुदाय में कागज और कैनवास पर पेंट करने वाली पहली महिला हैं, बल्कि एक कलाकार के रूप में अपनी स्वतंत्र प्रतिभा के लिए पहचान हासिल करने वाली पहली महिला भी हैं।
पद्मश्री रमेश परमार एवं उनकी धर्मपत्नी शांति परमार -2023
बीते 30 साल से आदिवासी लोक संस्कृति को बचाने के लिए संघर्ष करने वाले परमार दंपती को पद्मश्री अवार्ड के लिए चयनित किया गया है. झाबुआ जिले के रहने वाले इस दंपती पर आज पूरे मध्यप्रदेश को नाज है. आदिवासी गुड्डे-गुड़िया बनाकर देश के अलावा विदेशों में आदिवासी परंपरा को जीवंत रखने वाले परमार दंपती ने बड़ी गरीबी में संघर्ष करके ये मुकाम हासिल किया है. उन्होंने बताया कि कैसे जिद, जुनून और हौसले से वे आज भी काम कर रहे हैं. रमेश परमार बताते हैं आज से करीब 30 साल पहले उद्यमिता विकास केंद्र में इन्होंने 6 माह तक आदिवासी गुड़िया निर्माण की ट्रेनिंग ली थी. इसके बाद घर पर गुड़िया निर्माण का निर्णय किया. पैसे नहीं थे तो इधर उधर से कपड़े इकठ्ठे किए. इस तरह गुड़िया बनाने की शुरुआत हुई.
वर्ष 1997 में राष्ट्रीय पर्व 15 अगस्त को तत्कालीन कलेक्टर मनोज श्रीवास्तव ने जिला स्तरीय पुरस्कार प्रदान किया तो हौसला बढ़ गया. इसके बाद मार्केटिंग के लिए मृगनयनी एंपोरियम भोपाल से संपर्क किया और शिल्पी मेलों में भाग लेना शुरू किया. वे कालिदास समारोह में भी पिछले 12-13 सालों से भाग ले रहे हैं. जिससे इस कला को राष्ट्रीय पहचान मिली. शांति बाई बताती हैं दिनभर में वे पांच जोड़ी गुड्डे-गुड़िया तैयार करती हैं. बाहर आदिवासी गुड़िया की बहुत ज्यादा डिमांड है. लोग पारंपरिक गुड्डे-गुड़िया जिसमें महिला सिर पर बांस की टोकरी लिए हो तो पुरुष कंधे पर तीर-कमान उठाए हो, उसे बहुत पसंद करते हैं. परमार दंपती विभिन्न विभागों के समन्वय से 400 से अधिक महिलाओं को प्रशिक्षण दे चुके हैं.
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