Video News- जिला चिकित्सालय में लग रहा अव्यवस्थाओं का अम्बार , विभाग नहीं ले रहा सुध
मामले में जिला अस्पताल प्रबंधन और जिम्मेदार एजेंसी के बीच तालमेल की कमी का खामियाजा आम मरीजों को भुगतना पड़ रहा है। मरीजों द्वारा खुद की मोटर लाकर डायलिसिस करवाए जाने के मामले ने न केवल योजना की ज़मीनी हकिकत उजागर की है बल्कि भोपाल स्तर पर योजनाओं के बनने के बाद उनके क्रियान्वयन को लेकर खस्ताहाल हो चुके सिस्टम पर भी सवाल खड़े कर दिये है।
राजेश थापा, झाबुआ। जिला चिकित्सालय में अव्यवस्थाओं का हमेशा से ही
बोलबाला रहा है। यहाँ का स्वास्थ्य
विभाग अपने कार्य के प्रति गैर
जिम्मेदाराना है । मुख्यालय स्थित जिला चिकित्सालय में व्याप्त अव्यवस्थायें मरीजो के लिये जान की दुश्मन बन गयी है। अव्यवस्थायें ऐसी है कि मरीज यहां आने के बाद भगवान भरोसे ही सुरक्षित वापिस लौट सकता है। गंभीर से गंभीर मरीज को मोटी तनख्वाह पाने वाले चिकित्सक देखने की बजाय चतुर्थ श्रेणी स्टाफ के भरोसे छोड़ देते है। जिसके चलते कई बार मरीजो की मौत हो जाती है। तो कई बार उनकी हालत बिगड़ जाती है।
मरीजो के तीरमदार चिकित्सको से चाहे जितना गिडगिडाते रहे, लेकिन उनकी सुनने वाला कोई नहीं होता है। अगर मरीज या उसका तीरमदार अस्पताल के जिम्मेदारो से चिकित्सको की आराजकता तथा लापरवाही की शिकायत करता है तो जिम्मेदार उल्टे शिकायत कर्ता पर ही गुर्राने लगते है। कई बार शिकायत कर्ता पर टूट भी पड़ते है। लडाई झगडे पर उतारू हो जाते है। खामियाजा हर तरफ से मरीज तथा उसके साथ आये शिकायत कर्ता को भुगतना पड़ता है।
महज 10 महिनों में आदिवासी झाबुआ जिले में गरीब मरीजों के लिये वरदान साबित हो रही डायलिसिस योजना दम तोड़ चुकी है। कभी फिल्टर की कमी तो कभी आरओ प्लांट से मोटर के गायब हो जाने से मरीजों का डायलिसिस नही हो पा रहा। आलम यह है कि जरूरतमंद मरीज अपने घर से मोटर लाकर डायलिसिस करवा रहे है। दरअसल, 26 जनवरी 2017 से प्रदेशभर के जिला अस्पतालों में डायलिसिस सुविधा शुरू की गई। तब से अब तक कई बार अलग-अलग कारणों के चलते मरीजों को डायलिसिस न होने से परेशानी उठानी पड़ी है। एक सप्ताह पूर्व जिला अस्पताल की डायलिसिस मशीन से मोटर चोरी हो गई थी, जिसका अब तक कोई सुराग नही लगा है।
मामले में जिला अस्पताल प्रबंधन और जिम्मेदार एजेंसी के बीच तालमेल की कमी का खामियाजा आम मरीजों को भुगतना पड़ रहा है। मरीजों द्वारा खुद की मोटर लाकर डायलिसिस करवाए जाने के मामले ने न केवल योजना की ज़मीनी हकिकत उजागर की है बल्कि भोपाल स्तर पर योजनाओं के बनने के बाद उनके क्रियान्वयन को लेकर खस्ताहाल हो चुके सिस्टम पर भी सवाल खड़े कर दिये है।
उल्लेखनीय है की चिकित्सालय देश के कुछ चुनिंदा आईएसओ प्रमाणित चिकित्सालय में से एक है , बावजूद इसके ऐसी अनियमितता और अव्यवस्था विभागीय ढांचे एवं जिम्मेद्दारो की कार्य प्रणाली पर प्रश्न चिन्ह लगाती है ।
ऐसे तो हर सरकारी अस्पताल में चिकित्सको की लापरवाही मरीजो के लिये मौत का कारण बनती रही है। लेकिन जिला चिकित्सालय में स्थिति बदसे बदतर है। अगर किसी गंभीर मरीज को किसी विशेषज्ञ चिकित्सक की जरूरत होती है तो डयूटी पर होने के बाबजूद चिकित्सक मरीज तक जाने की बजाय मरीज के तीरमदारो को यह सलाह देते है। कि मरीज को जहां वह बैठे हो वही लेकर आओ। कुछ कदम चलने की बजाय मरीज को जो पूरी तरह चलने में असमर्थ होता है। उसे अपने पास बुलाने की बात करते है। हां वह बात अलग है कि यह भी चिकित्सक अपने निजी नर्सिंग होमो में जरूर दौड-दौड़ कर मरीज सेवा करते है। क्योंकि वहां इन्हे अच्छी खासी आमदनी होती है।
चारो तरफ पटी गन्दगी और इसी गन्दगी के बीच इलाज को तरस रहे मरीज़ शायद दबी जुबान अपने आप को कोसते नज़र आते है काश किसी निजी चिकित्सालय में इलाज कराया होता तो ऐसी फ़ज़ीहत ना होती। डॉक्टरों की कमीशनबाजी और कर्मचारियों का गैर जिम्मेदाराना रवैया..... बहरहाल सेकड़ो मरीज़ो की जान ले चूका है और सेकड़ो की जान लेने पर आमदा है।
वाकायदा वहां मरीज भी बैठकर देखते है। नाम भले ही किसी दूसरे चिकित्सक के नाम से पंजीकृत हो। लेकिन असली मालिक यही चिकित्सक होते है। जिला चिकित्सालय के विशेषज्ञ चिकित्सको के साथ-साथ अस्पताल के जिम्मेदार लोग भी मरीजो के प्रति घोर लापरवाही बरतते है। इन्ही जिम्मेदारो की शह के चलते अस्पताल की व्यवस्थायें गडबडायी हुयी है। ऐसे में जरूरी है कि शासन ध्वस्त हो चुकी सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं को पटरी पर लाने के लिये सबसे पहले लापरवाह हो चुके सरकारी चिकित्सको के पेंच कसे। या फिर बडे-बडे दाबे करना छोड़ दे। आम जनमानस को यमराज के रूप में पल रहे इन्ही भ्रष्ट चिकित्सको के हवाले छोड़ दे।
मरीजो के तीरमदार चिकित्सको से चाहे जितना गिडगिडाते रहे, लेकिन उनकी सुनने वाला कोई नहीं होता है। अगर मरीज या उसका तीरमदार अस्पताल के जिम्मेदारो से चिकित्सको की आराजकता तथा लापरवाही की शिकायत करता है तो जिम्मेदार उल्टे शिकायत कर्ता पर ही गुर्राने लगते है। कई बार शिकायत कर्ता पर टूट भी पड़ते है। लडाई झगडे पर उतारू हो जाते है। खामियाजा हर तरफ से मरीज तथा उसके साथ आये शिकायत कर्ता को भुगतना पड़ता है।
महज 10 महिनों में आदिवासी झाबुआ जिले में गरीब मरीजों के लिये वरदान साबित हो रही डायलिसिस योजना दम तोड़ चुकी है। कभी फिल्टर की कमी तो कभी आरओ प्लांट से मोटर के गायब हो जाने से मरीजों का डायलिसिस नही हो पा रहा। आलम यह है कि जरूरतमंद मरीज अपने घर से मोटर लाकर डायलिसिस करवा रहे है। दरअसल, 26 जनवरी 2017 से प्रदेशभर के जिला अस्पतालों में डायलिसिस सुविधा शुरू की गई। तब से अब तक कई बार अलग-अलग कारणों के चलते मरीजों को डायलिसिस न होने से परेशानी उठानी पड़ी है। एक सप्ताह पूर्व जिला अस्पताल की डायलिसिस मशीन से मोटर चोरी हो गई थी, जिसका अब तक कोई सुराग नही लगा है।
मामले में जिला अस्पताल प्रबंधन और जिम्मेदार एजेंसी के बीच तालमेल की कमी का खामियाजा आम मरीजों को भुगतना पड़ रहा है। मरीजों द्वारा खुद की मोटर लाकर डायलिसिस करवाए जाने के मामले ने न केवल योजना की ज़मीनी हकिकत उजागर की है बल्कि भोपाल स्तर पर योजनाओं के बनने के बाद उनके क्रियान्वयन को लेकर खस्ताहाल हो चुके सिस्टम पर भी सवाल खड़े कर दिये है।
उल्लेखनीय है की चिकित्सालय देश के कुछ चुनिंदा आईएसओ प्रमाणित चिकित्सालय में से एक है , बावजूद इसके ऐसी अनियमितता और अव्यवस्था विभागीय ढांचे एवं जिम्मेद्दारो की कार्य प्रणाली पर प्रश्न चिन्ह लगाती है ।
चिकित्सक नहीं चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी कर रहे इलाजजिला चिकित्सालय में आपातकालीन चिकित्सा कक्ष / ट्रामा सेंटर भी केवल देखने भर को रह गया है। यहाँ अगर गंभीर रूप से घायल या बीमार व्यक्ति भर्ती होता है तो उसका इलाज चतुर्थ श्रेणी या सफाई कर्मचारी के सहारे ही चलता है। इमरजेंशी डयूटी करने वाले चिकित्सक गंभीर से गंभीर मरीज को भी उठकर देखना भी मुनासिब नहीं समझते। चिकित्सक को तो छोडिय़े फार्मासिस्ट तथा अन्य स्टाफ भी मरीज के आस-पास नहीं भटकते। सारा इलाज चतुर्थ श्रेणी कर्मचारियों के सहारे होता है। चिकित्सीय शिक्षा से पूरी तरह अनभिज्ञ चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी गंभीर रूप से घायल मरीज के सही ढंग से घाव साफ तक नहीं करते। सीधे घटिया दवा लगाकर चारो तरफ पटटियां बांधकर मरीज को बस रेफर भर करने की खानापूर्ति कर देते है। जिसके चलते कई बार ऐसे मरीजो की जिंदगी भी खतरे में पड़ जाती है। जिन्हे आसानी से बचाया जा सकता है।
ऐसे तो हर सरकारी अस्पताल में चिकित्सको की लापरवाही मरीजो के लिये मौत का कारण बनती रही है। लेकिन जिला चिकित्सालय में स्थिति बदसे बदतर है। अगर किसी गंभीर मरीज को किसी विशेषज्ञ चिकित्सक की जरूरत होती है तो डयूटी पर होने के बाबजूद चिकित्सक मरीज तक जाने की बजाय मरीज के तीरमदारो को यह सलाह देते है। कि मरीज को जहां वह बैठे हो वही लेकर आओ। कुछ कदम चलने की बजाय मरीज को जो पूरी तरह चलने में असमर्थ होता है। उसे अपने पास बुलाने की बात करते है। हां वह बात अलग है कि यह भी चिकित्सक अपने निजी नर्सिंग होमो में जरूर दौड-दौड़ कर मरीज सेवा करते है। क्योंकि वहां इन्हे अच्छी खासी आमदनी होती है।
चारो तरफ पटी गन्दगी और इसी गन्दगी के बीच इलाज को तरस रहे मरीज़ शायद दबी जुबान अपने आप को कोसते नज़र आते है काश किसी निजी चिकित्सालय में इलाज कराया होता तो ऐसी फ़ज़ीहत ना होती। डॉक्टरों की कमीशनबाजी और कर्मचारियों का गैर जिम्मेदाराना रवैया..... बहरहाल सेकड़ो मरीज़ो की जान ले चूका है और सेकड़ो की जान लेने पर आमदा है।
मोटी तनख्वाह पाने वाले चिकित्सक कर रहे निजी प्रेक्टिससरकार से मिलने वाली तनख्वाह को यह मुप्त का माल मानकर चलते है। चिकित्सको की निजी प्रेक्टिस के चलते ही अस्पताल की व्यवस्थायें गडबडायी है। पूरा ध्यान इन चिकित्सको का अपने उन मरीजो की तरफ होता है। जो या तो इन चिकित्सको के घर में दिखाते है या फिर चिकित्सक के निजी नर्सिंग होम या उस अस्पताल में जहाँ चिकित्सक अप्रत्यक्ष रूप से किसी दूसरे के नाम से संचालित करता है। जिला चिकित्सालय की तकरीबन सभी चिकित्सक किसी न किसी निजी अस्पताल से जुड़े है। या फिर अपना स्वंय का अस्पताल खोले है।
वाकायदा वहां मरीज भी बैठकर देखते है। नाम भले ही किसी दूसरे चिकित्सक के नाम से पंजीकृत हो। लेकिन असली मालिक यही चिकित्सक होते है। जिला चिकित्सालय के विशेषज्ञ चिकित्सको के साथ-साथ अस्पताल के जिम्मेदार लोग भी मरीजो के प्रति घोर लापरवाही बरतते है। इन्ही जिम्मेदारो की शह के चलते अस्पताल की व्यवस्थायें गडबडायी हुयी है। ऐसे में जरूरी है कि शासन ध्वस्त हो चुकी सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं को पटरी पर लाने के लिये सबसे पहले लापरवाह हो चुके सरकारी चिकित्सको के पेंच कसे। या फिर बडे-बडे दाबे करना छोड़ दे। आम जनमानस को यमराज के रूप में पल रहे इन्ही भ्रष्ट चिकित्सको के हवाले छोड़ दे।
निजी एम्बुलेंस संचालको से भी कमीशनबाजीजिला चिकित्सालय के गेट के बाहर दर्जनो की संख्या में निजी एम्बुलेंस तथा अन्य चारपहिया वाहन खड़े रहते है। जिनका सीधे चिकित्सको से कान्टेक्ट होता है। इसी कान्टेक्ट के चलते ऐसे मरीजो को भी दाहोद या बड़ोदा के लिये रेफर कर दिया जाता है। जिन्हे आसानी से सही इलाज उपलब्ध कराकर जिला चिकित्सालय में ही ठीक किया जा सकता है। लेकिन दो जगह की कमीशन के चलते चिकित्सको द्वारा मानवता को ताक पर रखकर मरीज को रेफर कर दिया जाता है। यहां एक तो एम्बुलेंस संचालक प्रति मरीज के हिसाब से रेफर करने वाले चिकित्सको को पैंसा देते है। वहीं जिस अस्पताल के लिये चिकित्सक मरीज को रेफर करता है वहां से भी उस चिकित्सक के पास कमीशन आ जाती है। चिकित्सको की कार्यप्रणाली देखकर ऐसा लगता है कि अब यह सब बेनामी हो गये है कि चिकित्सक भगवान का दूसरा रूप होता है बल्कि अब यह सही होगा कि चिकित्सक भगवान नहीं बल्कि शैतान बन गये है जो मानवता को बचाने की जगह निगलने का काम कर रहे है।
*सरकारी अस्पताल की दवाईयों को घटिया क्यों बताते है चिकित्सक?*अधिकतर सरकारी चिकित्सक मरीजो को बाहर से दवाईयां खरीदने की सलाह देते है। सलाह के पीछे का कारण भी बताते है कि सरकारी अस्पतालो में सप्लाई होने वाली दवाओं निर्धारित मानको के अनुसार नहीं होती है। लिहाजा गंभीर रूप से घायल या बीमार मरीज को सरकारी दवाओं के सहारे ठीक करना मुश्किल होता है। ऐसे में महंगी बाहरी दवायें ज्यादा कारगर साबित होती है। हालांकि इस सलाह के पीछे यह हकीकत भी छिपी हुयी है कि जो दवायें सरकारी अस्पताल में सप्लाई होती है उनकी क़्वालिटी घटिया होती है। यानि चिकित्सको की माने तो बडे पैमाने पर दवा सप्लाई में भी घोटाला है। चिकित्सक यह सलाह आम मरीजो को नहीं देते है। बल्कि उन मरीजो को देते है। जो उनके करीब होते है। अगर चिकित्सको की यह सलाह सही है तो सरकार को भी गंभीरता से लेकर सरकारी अस्पतालो की दवा वितरण प्रणाली की जांच करानी चाहिये।
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