"आदिवासी गुड़िया कला" झाबुआ जिले की पुरातन संस्कृति - Jhabua dolls
झाबुआ की गुड़िया. आदिवासी गुड़िया - Jhabua Dolls- Tribal Handicrafts
झाबुआ / अलीराजपुर। गुड़िया घर झाबुआ जनजातियों की सांस्कृतिक रूप से अपनी अलग एक पहचान है। प्राचीन
संस्कृति एवं सभ्यता से प्राप्त अवशेषों से भी प्रकृति के प्रति आस्था
और विश्वास के रूप में प्रकृति की उपासना के उदाहरण मिलते हैं। सूर्य,
चन्द्रमा, पेड़-पौधे, जल, वायु, अग्नि,की पूजा का अस्तित्व मिश्र,
मेसोपोटामिया, मोहन-जोदाड़ो, हडप्पा आदि की संस्कृति में समान रूप से
मिलता है। जिसका स्पष्ट संकेत है कि प्राचीन मानव की आराध्य संस्कृति
का मूल प्रकृति पूजा रहा है। वर्तमान में भी प्रत्येक संस्कृति में
प्रकृति पूजा का अस्तित्व है. इसके अतिरिक्त हम यह देखते हैं कि आदिवासीयों का जीवन एक सम्पूर्ण इकाई
के रूप में विकसित है आदिवासी जीवन और कला की आपूर्ति अपने द्वारा
उत्पादित उन समस्त सामग्रियों से करते हैं जो उन्हें प्रकृति ने सहज रूप
से प्रदान की है।
गुड़िया कला
के निर्माण समय के संदर्भ में अनेक भ्रांतियां है। इसके प्रारंभ संबंधी
भ्रांतियों में एक यह भी है कि सर्वप्रथम आदिवासियों ने अपने तात्कालिक
राजा को उपहार स्वरूप शतरंज भेट किया था जिसमें शतरंज के मोहरों को
तात्कालिक परिवेश में उपलब्ध संसाधनों द्वारा आकार दिया जा कर अनुपम
कलाकृति का रूप दिया गया यथा शतरंज के मोहरों जैसे राजा, वजीर, घोड़ा,
हाथी, प्यादे इत्यादि को कपड़े की बातियां लपेट लपेट कर बनाया गया था। और
तभी से इसे रोजगार के रूप में अपनाये जाने पर बल दिया जाकर गुड़िया
निर्माण की प्रक्रिया प्रारंभ हो गई। और आदिवासी स्त्री पुरूषों को इसका
प्रशिक्षण दिये जाने की शुरूवात की गई।
आज गुड़िया का जो स्वरूप है वह गिदवानी जी का प्रयोग है प्रारंभिक स्वरूप में वेशभूषा तो वही थी जो आदिवासियों का पारंपरिक वेशभूषा चला आ रहा है। केवल तकनीक और आकार में परिवर्तन हुआ है। जैसा कि हम सभी इस बात से परिचित है कि न केवल ग्रामीणो में बल्कि आप हम सभी का बचपना नानी दादी द्वारा निर्मित कपड़े की गुड़िया से खेल कर गुजरा है। कपड़े की गुड़िया तब से प्रचलन में है लेकिन झाबुआ में इसका व्यवसायिक प्रयोग हुआ। जब आदिवासी हस्तशिल्प से संबंधित विशेषज्ञों से इस बारे में चर्चा की गई तो निष्कर्ष यही निकला कि प्रारंभ में गुड़िया अनुपयोगी कपड़े की बातियों को लपेटकर ही गुड़िया निर्माण किया जाता था लेकिन व्यावसायिक स्वरूपों के कारण ही अब स्टफ़ड डाल के रूप में सामने आया है। इस प्रविधि से आसानी से गुड़ियों की कई प्रतियां आसानी से कम परिश्रम, कम समय में तैयार की जा सकती। एवं कम प्रशिक्षित शिल्पियों द्वारा भी यह कार्य आसानी से करवाया जा कर शिल्प निर्माण किया जा सके।
आज गुड़िया का जो स्वरूप है वह गिदवानी जी का प्रयोग है प्रारंभिक स्वरूप में वेशभूषा तो वही थी जो आदिवासियों का पारंपरिक वेशभूषा चला आ रहा है। केवल तकनीक और आकार में परिवर्तन हुआ है। जैसा कि हम सभी इस बात से परिचित है कि न केवल ग्रामीणो में बल्कि आप हम सभी का बचपना नानी दादी द्वारा निर्मित कपड़े की गुड़िया से खेल कर गुजरा है। कपड़े की गुड़िया तब से प्रचलन में है लेकिन झाबुआ में इसका व्यवसायिक प्रयोग हुआ। जब आदिवासी हस्तशिल्प से संबंधित विशेषज्ञों से इस बारे में चर्चा की गई तो निष्कर्ष यही निकला कि प्रारंभ में गुड़िया अनुपयोगी कपड़े की बातियों को लपेटकर ही गुड़िया निर्माण किया जाता था लेकिन व्यावसायिक स्वरूपों के कारण ही अब स्टफ़ड डाल के रूप में सामने आया है। इस प्रविधि से आसानी से गुड़ियों की कई प्रतियां आसानी से कम परिश्रम, कम समय में तैयार की जा सकती। एवं कम प्रशिक्षित शिल्पियों द्वारा भी यह कार्य आसानी से करवाया जा कर शिल्प निर्माण किया जा सके।
आदिवासी बाहुल्य जिले की आदिवासी हस्तशिल्प कलाओं को संरक्षित एवं संवर्धन करने का कार्य वर्षों से करते आ रहे रमेश परमार एवं उनकी धर्मपत्नी श्रीमती शांति परमार का देश की राजधानी दिल्ली से पद्मश्री-2023 सम्मान के लिए चयन हुआ है,
जरूर देखे : झाबुआ की आदिवासी हस्तशिल्प कलाओं को संरक्षित करने वाले रमेश परमार एवं उनकी धर्मपत्नी शांति परमार पद्मश्री-2023 से सम्मानित
गुड़िया कला के वरिष्ठ शिल्पी श्री उद्धव गिदवानी जी के अनुसार भी आदिवासियों को प्रशिक्षण प्रदान करने हेतु 1952-53 में शासन ने पहल की तब से आज तक यह परम्परा निरंतर चली आ रही है। जिसका उद्देश्य आदिवासी क्षेत्रों में रोजगार के अवसरों को सृजित करना, रोजगार प्रदान करना, व्यवहारिक शिक्षा को प्राथमिकता देना, एवं आदिवासी सामाजिक, सांस्कृतिक एवं धार्मिक पहलुओं को शामिल करना इत्यादि रहा है।
(स्टफ्ड डाल) |
गुड़िया कला के प्रकार
गुड़िया निर्माण प्रविधि के अनुसार गुड़िया दो प्रकार की बनाई जाती है।
रेग डॉल एवं स्टॅफ्ड डॉल। झाबुआ क्षेत्र में मुख्यत: स्टफ्ड डॉल का
निर्माण किया जाता है। जिसमें आदिवासी भील-भिलाला युगल, आदिवासी ड्रम बजाता
युवक, जंगल से लकड़ी अथवा टोकरी में सामान लाती आदिवासी युवती इत्यादि
प्रमुखता से बनाया जाता है। प्रारंभ में गुड़िया लगभग आठ से बारह इंच तक की
बनाई जाती थी लेकिन वर्तमान समय में दस से बारह फुट तक की गुड़िया बनाई
जाने लगी है। अब गुड़िया निर्माण केवल अलंकरणात्मक नहीं रह गई बल्कि
चिकित्सा शिक्षा के क्षेत्र में भी अपनी पहचान बना रहा है। जहां कपड़े से
निर्मित जीवन्त मॉडलों का निर्माण किया जा कर शिक्षा में रचनात्मक प्रयोग
किये जा रहें है। इसके अतिरिक्त विवरणात्मक गुड़िया समूह का निर्माण भी
किया जा रहा है जिसमें आदिवासी जीवन की सहज घटनाओं जैसे मुर्गा लड़ाई,
सामाजिक दिनचर्या, नृत्य, महापुरूषों की जीवन में घटित घटनाओं, सैन्य
प्रशिक्षण, इत्यादि प्रमुख हैं।
वेशभूषा
गडि़या शिल्प में यहां की विशिष्ट जनजातीय वेशभूषा का प्रयोग परम्परागत तरीके से किया जाता है। जिसमें स्त्री आकृति को घाघरा चोली और ओढ़नी पहनाया जाता है और पुरूष आकृति को धोती, शर्ट और पगड़ी पहनायी जाती है। प्रधानत: स्त्री को सिर पर टोकरी रखी जाती है और पुरूष आकृति को हाथ या कंधे पर कुल्हाड़ी या स्थानीय वाद्ययंत्र पकडे़ या बजाते हुए बनाया जाता है। जिनमें भील-भिलाला की युगल आकृति या एकल आकृति प्रमुख होती है लेकिन अब इन शिल्पों की वेशभूषा में राष्ट्रीय भावना से देश की अन्य जातिविशेष की वेशभूषा में भी बनाया जाने लगा है जैसे राजस्थानी, क्रिश्चियन, पंजाबी, कश्मीरी, मणिपुरी इत्यादि क्षेत्रीय दुल्हनों का स्वरूप दिया जा रहा है। इसके अतिरिक्त कृष्ण एवं राधा की वेशभूषा वाले शिल्पों ने भी प्रशंसा बटोरी है। ऐतिहासिक प्रंसगों वाले शिल्पों की वेशभूषा में तात्कालिक वेशभूषा का प्रयोग ही किया गया है जिससे घटनाओं का सार्थक अर्थ दिया जा सके ।
रंग चयन
पारम्परिक शिल्पों के रंग चयन में सबसे महत्वपूर्ण उनकी वेशभूषा है जिसे वे झाबुआ क्षेत्र में प्रचलित रंगों का प्रयोग करते हैं। या हम यह भी कह सकते हैं कि शिल्पी उन्हीं कपड़ों के टुकड़ों का प्रयोग शिल्प की वेशभूषा में करते हैं। इस तरह के वस्त्रों के रंगों में लाल,पीला, नीला, गुलाबी, जैसे चटक रंगों का प्रयोग किया जाता है। शिल्प के अंग प्रत्यंगों के रंग हेतु गहरे भूरे या हल्के भूरे रंग मुख्य होते हैं। आंखों, भौंहों और ओठ के लिये काले सफेद और लाल रंग का प्रयोग अधिकतर शिल्पीयों द्वारा किया जाता है। कभी कभी गहरे हरे रंग का प्रयोग ढोडी पर गोदना का प्रभाव देने के लिये किया जाता है। शस्त्रों एवं औजारों के लिये प्राकृतिक रंगों के ही वस्तुओं का प्रयोग किया जाता है। जैसे लोहे से बने हंसिया, टंगिया, तीर इत्यादि एवं धनुष के लिये बांस, टोकरी बांस की ही बारीक सीकों, ढोलक के लिये लकड़ी के टुकड़े का प्रयोग कर उनके मूल प्राकृतिक रंगों में ही प्रयुक्त किया जाता है। इन गुड़िया शिल्पों में या तो युगल आकृतियां अथवा एकल शिल्पों के विभिन्न रूपाकारों का निर्माण प्राय: किया जाता है। अत: स्त्री आकृति को चटक रंग एवं पुरूष आकृति को सफेद धोती और गहरे या चटक रंग की शर्ट और रंगीन या सफेद पगड़ी का चयन किया जाता है।
आदिवासी युगल के अतिरिक्त निर्मित शिल्पों में अन्य स्थानीय सांस्कृतिक परिवेश, परम्परा और संस्कृति के अनुरूप रंग चयन किया जाता है जैसे क्रिश्चियन दुल्हन के लिये सफेद रंग, राजस्थानी दुल्हन के लिये लाल,पीले रंगों या चटक रंगों का प्रयोग किया जाता है। ऐतिहासिक एवं विभिन्न सांस्कृतिक नृत्यों इत्यादि में स्थानीय सांस्कृतिक परिधानों का प्रयोग कर वास्तविकता की अभिव्यक्ति की गई है।
आदिवासी युगल के अतिरिक्त निर्मित शिल्पों में अन्य स्थानीय सांस्कृतिक परिवेश, परम्परा और संस्कृति के अनुरूप रंग चयन किया जाता है जैसे क्रिश्चियन दुल्हन के लिये सफेद रंग, राजस्थानी दुल्हन के लिये लाल,पीले रंगों या चटक रंगों का प्रयोग किया जाता है। ऐतिहासिक एवं विभिन्न सांस्कृतिक नृत्यों इत्यादि में स्थानीय सांस्कृतिक परिधानों का प्रयोग कर वास्तविकता की अभिव्यक्ति की गई है।
आभूषण
शिल्प निर्माण में अलंकरण अपना विशेष महत्व रखता है। जिसके बिना शिल्प की पूर्णता की कल्पना करना बेमानी होगा। सामान्यत: भील स्त्री पुरूष विविध प्रकार के गहने पहनते हैं। ये गहरे कथीर , चाँदी और कांसे के बने होते हैं। जिनमें से भी कथीर का प्रचलन सर्वाधिक है। आज के वर्तमान संदर्भो में जहां पारम्परिक आदिवासी आभूषणों को आधुनिक समाज ने फैशन के नये आयामों के रूप में स्वीकार कर लिया है तो आदिवासी शिल्पों में उसका महत्व और अधिक हो जाता है। आदिवासी संस्कृति के अनुरूप कमर में काले रंग का मोटा घागा(बेल्ट नुमा) पहनाए जाते हैं। स्त्री के पैरों में कड़ला, बाकडिया, रमजोल, लंगरलौड, नांगर, तोडा, पावलिया, एवं पैरो की अंगुलियों में बिछिया जो कि भीली महिलाओं के सौभाग्य के प्रतीक आभूषण होते हैं, धारण करती है।
गले में तागली, हंसली या गलसन (मोतियों की माला), जबरबंद (पैसों की माला), कानों में बालियां, टोकडी, मोरफैले, झांझऱया(एक गोल रिंग में गोल गोल कथीर के छल्ले), हाथ में बाहरिया, हठका, करोंदी, कावल्या (कांच की चूडिया),हाथसांकरी, भुजा में बास्टया(बाजूबंद), हठके, हाथ की अंगुलियों में मुंदडी, सिर पर बोर राखडी (, छिवरा, झेला(चाँदी की लडियों वाला सांकल),बस्का (चाँदी या कथीर के चिमट) आदि पहने जाते हैं। इसी तरह पुरूषों के हाथों में बौहरिया,कमर में कंदोरा, कानों में मोरखी, गले में तागली पहनाई जाती है। पुरूष कानों में मूंदड़े, टोटवा, गले में बनजारी या सांकल, हाथ में नारह-मुखी(चाँदी के कड़े), भुजा में हठके तथा पाँव में बेडी पहनते हैं। और यथा संभव गुड़िया निर्माण में उपलब्ध संसाधनों द्वारा उपर्युक्त आभूषणों का निर्माण कर शिल्प की सजावट की जाती है। पुरूषों को अस्त्र पकड़े हुए या हाथ में तीर कमान दिया जाता है जो हरिया या कामठी भी कहलाता है। यह आदिवासीयों के सुरक्षा कवच का प्रतीक है, अथवा वाद्ययंत्र पकड़े या बजाते हुए बनाया जाता है
गले में तागली, हंसली या गलसन (मोतियों की माला), जबरबंद (पैसों की माला), कानों में बालियां, टोकडी, मोरफैले, झांझऱया(एक गोल रिंग में गोल गोल कथीर के छल्ले), हाथ में बाहरिया, हठका, करोंदी, कावल्या (कांच की चूडिया),हाथसांकरी, भुजा में बास्टया(बाजूबंद), हठके, हाथ की अंगुलियों में मुंदडी, सिर पर बोर राखडी (, छिवरा, झेला(चाँदी की लडियों वाला सांकल),बस्का (चाँदी या कथीर के चिमट) आदि पहने जाते हैं। इसी तरह पुरूषों के हाथों में बौहरिया,कमर में कंदोरा, कानों में मोरखी, गले में तागली पहनाई जाती है। पुरूष कानों में मूंदड़े, टोटवा, गले में बनजारी या सांकल, हाथ में नारह-मुखी(चाँदी के कड़े), भुजा में हठके तथा पाँव में बेडी पहनते हैं। और यथा संभव गुड़िया निर्माण में उपलब्ध संसाधनों द्वारा उपर्युक्त आभूषणों का निर्माण कर शिल्प की सजावट की जाती है। पुरूषों को अस्त्र पकड़े हुए या हाथ में तीर कमान दिया जाता है जो हरिया या कामठी भी कहलाता है। यह आदिवासीयों के सुरक्षा कवच का प्रतीक है, अथवा वाद्ययंत्र पकड़े या बजाते हुए बनाया जाता है
अस्त्र शस्त्र एवं दैनिक उपयोग के औजार
भील सदैव अपने साथ धनुष बाण रखते हैं। धनुषबाण भीलों की प्रमुख पहचान है ये अंधेरे में भी तीर का निशाना लगाने में माहिर होते हैं। यही कारण है कि शिल्प निर्माण में भील पुरूषों को तीर कमान धारी बनाया जाता है। इसके अतिरिक्त फालिया या धारिया भी लोहे का बड़ा धारदार दरातीनुमा हथियार है। भील पगडी पर गोफन बांधते हैं गोफन चमड़े या रस्सी की गुंथी हुई एक चौडी पट़टी होती है उसके दोंनों सिरों पर रस्सी रहती है जिसमें पत्थर बाँध कर निशाना लगाते हैं। इसके अतिरिक्त कुल्हाडी तलवार लटठ, फरसा भी भीलों का हथियार है। जिसे शिल्प के सजावट हेतु प्रयुक्त किया जाता है। शिल्प के नवीन प्रयोगों के अन्तर्गत वर्तमान समय में शिल्प के फ्रेम के साथ हथियारों को भी सम्मिलित किया जाता है जिससे आदिवासी भीला संस्कृति का परिचय भी आमजन को हो जाता है साथ शिल्प आकर्षक भी लगता है।
गुड़ियाकला के प्रमुख केन्द्र
झाबुआ क्षेत्र में गुड़िया कला ने अब व्यवसायिक स्वरूप ग्रहण कर लिया है न केवल प्रदेश में बल्कि देश में और देश से बाहर भी अपनी ख्याति अर्जित कर रहा है। झाबुआ क्षेत्र के कलाकारों को फैशन तकनीक महाविद्यालय भी प्रदर्शन हेतु आमंत्रित करने लगे है। बावजूद इसके झाबुआ जिले में गुड़ियाकला के शिल्पकारों में सीमितता नजर आती है। सम्पूर्ण जिले में मात्र कुछ एक ग्रामों में ही इसके उत्सुक शिल्पकार मिलतें है। अन्यथा शेष खेती अथवा अन्य व्यवसाय ही करना ज्यादा पसंद करते हैं। सर्वेक्षण के दौरान थांदला, मेघनगर, अनुपपूर, झाबुआ क्षेत्रों के आसपास के ग्रामों की महिलाओं में ही यह रूचि दिखाई देती है। इसके अतिरिक्त झाबुआ क्षेत्र के ऐसे शिल्पी जो सरकारी नौकरी के कारण झाबुआ से बाहर निवास कर रहे है उनमें रतलाम इन्दौर और उज्जैन एवं आसपास के क्षे्त्रों में रह रहे है। वे स्थानीय सुविधा और मांग के अनुरूप इस विधा से जुड़े हुए है। जो संख्या की दृष्टि से नाममात्र है,लेकिन अवसर मिलने पर इससे जुडने और इसे न केवल प्रदेश स्तर बल्कि देश में इसकी पहचान कायम करने के लिये लालायित है।
झाबुआ का शक्ति एम्पोरियम स्वयं में एक विकसित केन्द्र है जो पिछले अनेक वर्षो से इस कलाकर्म से सक्रियता से जुडा हुआ है यह न केवल गुड़िया निर्माण में बल्कि आदिवासी महिलाओं को प्रशिक्षण भी प्रदान कर उन्हें स्वावलंबी बनाने के क्षेत्र में अभूतपूर्व कार्य कर रहा है। आज भी शक्ति कला एम्पोरियम में 10 महिला कार्यकर्ता है जो एम्पोरियम के लिये सक्रिय भागीदारी कर रही है। रतलाम एवं उज्जैन में भी झाबुआ के ही एक दो आदिवासी परिवार गुंडिया व्यवसाय कर रहे है एवं प्रशिक्षण कार्य इसमें रूचि रखने वाले युवाओं को प्रदान करते हैं लेकिन अनुपात में यह कम प्रचलन में हैं।
स्थानीय सरकारी संस्थाओं उद्योग विभाग और पंचायत के सहयोग से अनेक स्वयं सहायता समूह बनाये गये है जो इस कलाकार्य में सक्रिय भूमिका अदा करते हैं जो अपने आप में अब प्रशिक्षण संस्था और रोजगार के केन्द्र के रूप में मुख्य भूमिका अदा करने लगे है उनमें सूरज स्वयं सहायता समूह, निर्मला स्वयं सहायता समूह, सांवरिया स्वयं सहायता समूह, आदिवासी एम्पोरियम (अध्यक्ष बद्दूबाई 60 वर्ष सचिव राजूबाई), शक्ति एम्पोरियम प्रमुख है। झाबुआ क्षेत्र की कला को भोपाल में मैडम कमला डफाल ने विकसित किया है वे केन्द्रिय जेल में आदिवासी महिला बंदियों को गुड़िया कला का प्रशिक्षण कई वर्षो तक प्रदान करती रही है आज भी इस गुड़िया कला से सक्रियता से जुड कर अर्न्तराष्ट्रीय पहचान बना रही है। और उसी का परिणाम आकार गुड़िया घर भोपाल है। यूं तो प्रशिक्षित आदिवासी महिलाओं की संख्या अधिक लेकिन सक्रिय रूप से शिल्प निर्माण में कार्यरत समूहों में सिर्फ चार पाँच समूह ही है जो निरन्तर शिल्प निर्माण, प्रशिक्षण कार्यक्रम, हस्तशिल्प मेलों इत्यादि में भागीदारी कर रहीं है।
आकार गुड़िया घर कला को संरक्षण प्रदान करने वाली ऐसी संस्था है जहां जो सिर्फ भोपाल का ही नहीं वरन् पूरे मध्यप्रदेश का गौरवपूर्ण कला मण्डप है। जो केवल गुड़ियों का संग्रह नहीं बल्कि अनेक प्रांतों की सभ्यता और संस्कृति का एक मंदिर भी है। यहां अनेक प्रांतों की वेशभूषा, रहन-सहन, परम्पराओं और कलाओं के वैभव के दर्शन कराता है। साथ ही यह भी बताता है कि गुड़ियाएं बनाने की कला हमारे जीवन में महत्वपूर्ण स्थान रखती हैं और यह भी कि हमारी कला संस्कृति में एक महत्वपूर्ण स्थान गुड़िया बनाने की कला का भी है। यह गुड़िया घर इसलिये भी महत्वपूर्ण हो जाता है कि यहां निर्मित सभी गुडि़यां महिला आदिवासी बंदियों द्वारा निर्मित हैं। आदिवासी महिला बंदियों के लिये यह योजना वरदान साबित हुई
आकार गुड़ियाघर का लोकार्पण 30 जुलाई 1996 को हुआ तथा इसका अवलोकन डॉ.शंकरदयाल शर्मा के द्वारा 4 अगस्त 1996 को किया गया। यहां महिला कैदियों द्वारा निर्मित विभिन्न प्रांतीय वेशभूषा में निर्मित लगभग 1000 से भी अधिक छोटी बडी गुडि़यां के माध्यम से भारत के विभिन्न जनजातियां और अन्य संस्कृतियां दर्शाने के उद्देश्य से 34 जनजातिय नृत्यों की झांकियां तैयार की गई हैं। कालांतर में इन महिला बंदियों के आर्थिक विकास की दृष्टि से संग्रहालय परिसर में ही गुड़िया विक्रय केन्द्र खोलने का विचार है। जिससे संभवत: सामाजिक उपेक्षा की शिकार ये महिलाएं अार्थिक रूप से सुदृढ़ हो जीवन के प्रति आशावान एवं विश्वस्त हो सकेंगी।
आकार गुड़ियाघर में रखी गुड़ियाओं को पूर्ण रूप प्रदान करने वाली महिला बंदी आदिवासी कलाकारों के लिये यह सोचने पर मजबूर करता है कि चाहे कोई आपराधिक प्रवृत्ति की हो लेकिन उसके अदंर एक कलाकार छुपा होता है। और हर कलाकार के अंदर संवेदनशीलता अवश्य होती है।
गुड़ियाकला के प्रमुख शिल्पी साक्षात्कार
स्व. श्री उद्धव गिदवानी |
स्व. श्री उद्धव गिदवानी शक्ति एम्पोरियम के संस्थापक हैं। इन्होंने 1989 से गुड़िया निर्माण के क्षेत्र से जुड़े हुए हैं। अब उनके सुपुत्र श्री सुभाष गिदवानी इस कार्य को सम्भाल रहे है उन्हें गुड़िया कला के उत्कृष्ट कार्यो के लिये मध्यप्रदेश सरकार से सम्मान भी प्राप्त हुआ है। इनके अनुसार गुड़िया निर्माण का कार्य झाबुआ में 1952-53 में झाबुआ के आदिवासी महिलाओं को रोजगार हेतु आदिम जाति कल्याण विभाग में ट्रेनिंग कम प्रवजन सेन्टर के अन्तर्गत सिखाया जाता था। आप उस समय उसी विभाग में लेखापाल के रूप में कार्यरत थे। उस समय राजस्थान एवं गुजरात में इनकी मांग अधिक थी। गुड़िया का प्रारंभिक स्वरूप आज से थोडा भिन्न था। लेकिन मांग अधिक शिल्पी कम होने की दिशा में श्री उद्धव के सुपुत्र ने पिता के सहयोग और प्रेरणा एवं तात्कालिक कलेक्टर श्री आर.एन. बैरावा के प्रोत्साहन से 1983 को विजयादशमी के दिन से शक्ति एम्पोरियम का निर्माण किया और तब से इस क्षेत्र में सक्रिय योगदान न केवल स्वयं के व्यवसाय हेतु बल्कि आदिवासी महिलाओं को प्रशिक्षण दे कर स्वावलंबी बनाने की दिशा में सकारात्मक प्रयास कर रहे है।
प्रारंभ में केवल चार गुड़िया शिल्पियों से आपने अपना एम्पोरियम शुरू किया और अब तक आपने लगभग 10 से 12 समूहों को प्रशिक्षण प्रदान किया है और लगभग 150 से 200 महिलाओं को प्रशिक्षित किया है। आपने 1989-90 में आदिवासी भगोरिया नृत्य को मूर्त रूप दिया था जिसे हस्त शिल्प विकास निगम द्वारा संस्कृति के अनुरूप निर्मित शिल्प के रूप में प्रोत्साहन मिला एवं राज्य सरकार ने इस शिल्प को पुरस्कार से सम्मानित किया। आपने अपने शिल्प राष्ट्रस्तरीय प्रतियोगिता हेतु भी तैयार किया है। श्री सुभाष गिदवानी ने 300 से ज्यादा प्रदर्शिनियों में भाग लिया है और देश के लगभग सभी प्रमुख शहरों में अपने कार्य का प्रदर्शन कर चुके है जिनमें से मद्रास में इन्हें अधिक सराहा गया । सन् 2009 में आपने अपने पिता के सहयोग से झाबुआ कलेक्टोरेट परिसर के मुख्य द्वार पर लगभग 12 फुट उंची आदिवासी युगल की मूर्ति निर्मित कर स्थापित की है। आप के अनुसार आज सम्पूर्ण झाबुआ में 14 से 15 समूह इस कार्य में भागीदारी कर रहे है जिनमें से 4 से 5 समूह का ही योगदान नियमित है ।
परिवर्तन के संदर्भ में आपने कहा कि आज इनके आकार में वेशभूषा में एवं सजावटी अलंकरण हेतु निर्मित स्वरूप में परिवर्तन हुआ है पहले केवल आदिवासी युगल पारम्परिक वेशभूषा एवं पारंपरिक हथियार गोफन और तीर कमान ही बनाये जाते थे अब भारत की विभिन्न संस्कृतियों के पहनावे बनाये जाने लगे है जैसे राजस्थानी, मणिपुरी, गुजराती इत्यादि। साथ डेकोरेटिव रूपों में भी प्रयोग किये है जैसे टेबल लैम्प, चिमनी, वाल हैगिग, गणेश, पेनस्टैण्ड, तोरण, की रिंग इत्यादि।
गुड़ियाकला का भारतीय कला में योगदान
ईश्वर की बनायी गयी इस प्रकृति में मानव एक ऐसा प्राणी है, जिसको ईश्वर ने सौंदर्य रूपी अवर्णनीय पुंजी दी है। और यह एक ऐसी पूंजी है जिसे वह स्वयं में पाता है। अथर्ववेद में लिखा भी गया है कि ‘’चाहे तुममे दस गुना सृजन शक्ति हो या चाहे एक ही गुना, अपनी क्षमता के अनुसार सृजन अवश्य करो। अन्यथा सृष्टि के लिये तुम्हारा कोई उपयोग नहीं। तुम्हारी क्षमताओं की सार्थकता तुम्हारे कृतित्व में ही है। कला मानव की इसी दिव्य सृजन प्रतिभा का परिणाम है।
झाबुआ के विभिन्न क्षेत्रों में निर्मित गुड़िया का संसार न केवल झाबुआ के भील भिलाला को बल्कि भारत के विभिन्न प्रांतों की सांस्कृतिक परम्पराओं को दर्शाने वाली गुड़ियाओं का विशाल भंडार है। आदिवासी हस्तशिल्प को प्रोत्साहन देने के लिये 1969 में राज्य सरकार द्वारा आदिवासी हस्तशिल्प एम्पोरियम की स्थापना की गई थी। जहां वर्ष भर अनुसूचित जाति और जनजाति के इच्छुक लोगों को गुड़िया शिल्पकला का प्रशिक्षण दिया जाता है। जिससे उन्हें स्वरोजगार प्राप्त हो सके साथ ही बेजोड़ कला शिल्प को जीवंत भी रखा जा सके। वर्तमान समय में पंचायती राज स्वसहायता समूह कारगर साबित हुए है जिससे ये आदिवासियों के लिये स्वरोजगार का सर्वोत्तम साधन बन गया है। महिला सशक्तीकरण की मुहिम के अन्तर्गत सरकार ने बैंकों के माध्यम से महिला स्वसहायता समूहों को बढ़ावा दिया। परिणाम स्वरूप दूरस्थ वनांचलों वाले दलित और आदिवासियों तक इसका प्रचार हुआ और आदिवासी समूहों ने इसका लाभ लिया, आज आदिवासी महिलाएं तमाम क्षेत्रों में आगे बढ़ रहीं हैं। जो परिस्थितिवश नहीं पढ़ पाई वे स्वरोजगार से जुड़ गई हैं।
आदिवासी महिलाओं की कल्पनाशीलता का बेहतर परिचय उनकी शिल्प कला में देखा जा सकता है। शिल्पों में दैनिक क्रियाकलापों से लेकर शादी विवाह और तीज-त्यौहार इत्यादि शामिल होत हैं। विश्व में आदिवासी एवं लोक कला के बढ़ते रूझान ने इन शिल्पकारों के आर्थिक सम्पन्नता के द्वार खोल दिये हैं। इस सरकारी संस्था के अतिरिक्त अन्य कई गैर सरकारी संस्थाएं भी अस्त्त्वि में आई हैं जो आदिवासी अथवा गैरआदिवासी स्थानीय युवक युवतियों को इसका प्रशिक्षण प्रदान कर स्वावलंबी बना रहें हैं। देश के अनेक बड़े नगरों में हस्तशिल्प मेलों में इन्हें आमंत्रित किया जाता है जहां ये अपने बेजोड़, आकर्षक शिल्पों का विक्रय करने के साथ ही अपनी पहचान बनाने में समर्थ हो रहें हैं। आज के इस आधुनिक समकालीन फैशन जगत भी इससे अछूता नहीं है अब राष्ट्रीय फैशन संस्थान दिल्ली, भोपाल एवं अन्य संस्थानों में इन शिल्पियों को प्रशिक्षण हेतु आमंत्रित किया जा रहा है। जहां ये शिल्प निर्माण का प्रशिक्षण प्रदान करने हेतु जाने लगे है। प्रशिक्षित शिल्पी न केवल अलंकारिक और सौन्दर्यप्रधान शिल्पों के निर्माण में अपितु शिक्षा के क्षेत्र में भी चाहे वह चिकित्सा जैसे उच्च शिक्षा हो या बच्चों की नैतिक शिक्षा हो में अपनी पैठ बना रहे है।
वर्तमान समय में आंतरिक सज्जा में इन कपडों से निर्मित शिल्पों को स्थान दिया जाने लगा है जो इस कला के प्रगति के सूचक है। झाबुआ के कलाकार इन शिल्पों में रचनात्मक पहल भी कर रहे है जिससे अब इनके आकार का वृहद स्वरूप भी सामने आया है जिसमें ये शिल्पी लगभग 12 से 14 फुट उचें शिल्प बना रहे है हालांकि इस कार्य हेतु इन्हें अपनी पारम्परिक तकनीक में थोडा परिवर्तन करना पडा है जिसे हम रचनात्मकता की आवश्यकता कह सकते हैं। ऐसा ही एक आदिवासी युगल शिल्प झाबुआ के कलेक्टोरेट परिसर में स्थित है। ऐसे अन्य शिल्प इन्दौर एवं देश के अन्य स्थानों हेतु बनाये जा रहे है।
वीडियो
आपकी राय