झाबुआ भगोरिया पर्व - आदिवासी संस्कृति की अद्भुत मिसाल
Jhabua Bhagoria Festival, Bhagoria Haat Alirajpur- Jhabua.
झाबुआ एवं अलीराजपुर जिले का भगोरिया पर्व प्रदेश को संस्कृति के क्षेत्र में विश्व मानचित्र में विशेष स्थान दिलाता है। ग्रीष्म ऋतु की दस्तक के एहसास के साथ आम के मौरो की खुशबू से सराबोर मदमस्त फागुनी हवाओं के झोको के साथ आदिवासियों का लोकप्रिय पर्व भगौरिया होलिका दहन होने के सात दिन पूर्व से प्रारंभ होता है। आदिवासी अंचलों में भगोरिया हाट प्रारंभ होने के सात दिन पूर्व से जो बाजार लगते है, उन्हें आदिवासी अंचल में त्यौहारिया हाट अथवा सरोडिया हाट कहते है। भगोरिया पर्व आदिवासियों का महत्वपूर्ण त्यौहार है। इसलिए भगौरिया हाट प्रारंभ होने से पूर्व के साप्ताहिक हाट में इस त्योहार को मनाने के लिए अंचल के आदिवासी ढोल, मांदल, बांसुरी, कपडे,गहने एवं अन्य आवश्यक वस्तुओं की खरीददारी करते है। अर्थात साज-सज्जा का सामान खरीदते है। इसीलिए इन्हें त्यौहारिया हाट कहा जाता है।
क्या है भोगर्या अथवा भगोरिया पर्व
Jhabua Bhaoria |
भगोरिया इतिहास
भगोरिया कब औऱ क्यों शुरू हुआ। इस बारे में लोगों में एकमत नहीं है। भगोरिया पर लिखी कुछ किताबों के अनुसार भगोरिया राजा भोज के समय लगने वाले हाटों को
कहा जाता था। इस समय दो भील राजाओं कासूमार औऱ बालून ने अपनी राजधानी भगोर में विशाल मेले औऱ हाट का आयोजन करना शुरू किया। धीरे-धीरे आस-पास के भील राजाओं ने भी इन्ही का अनुसरण करना शुरू किया जिससे हाट और मेलों को भगोरिया कहना शुरू हुआ। वहीं दूसरी ओर कुछ लोगों का मानना है क्योंकि इन मेलों में युवक-युवतियाँ अपनी मर्जी से भागकर शादी करते हैं इसलिए इसे भगोरिया कहा जाता है।
झाबुआ भगोरिया पर्व | |
— Jhabua Bhagoria — | |
राज्य | मध्यप्रदेश, |
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त्यौहार | होली |
माह | फाल्गुन माह (फरवरी-मार्च) |
पर्व देवता | भंगोरा देव |
अंचल | मालवा |
स्थान | अलीराजपुर,झाबुआ,धार,खरगोन |
महिला परिधान | **बजकरी, बाहटिया, कंदोरा, तागली, सर, हाकली, घेरदार घाघरा, लुगड़ा, वैलरी और चांदी के आभूषण |
पुरुष परिधान | धोती, कमीज, बंडी और झूलड़ी |
आभूषण | **बस्ता काड़ा (आर्मलेट), खली वाला कडा (कलाई के लिए), दाल और कावली (चूड़ी), तागली (हार), पान वाला हायर (गर्दन के लिए), झुमकी (बालियां),अंगोथा और कंडोरा |
वाद्य यंत्र | ढोल,मांदल, बांसुरी, कुंडी, थाली ओर घुंघरू |
मेले के व्यंजन | गुड की जलेबी,भजिये,खारिये (सेव),पान ,कुल्फी ,केले |
गीत | आदिवासी लोक गीत |
मुख्य विशेषताएं | हाट, मेला और शादी का बाजार |
जाती | भील,भिलाला,पाटलिया और राठिया |
प्रमुख पेय | ताड़ी |
कुछ
ग्रामीण बताते है कि भगोरिया भगोर रियासत को जीतने का प्रतीक पर्व है।
भगौरिया पर्व भगौर रियासत की जीत की बरसी के रूप में खुशी को जाहिर करने के
लिए मनाया जाता है। इस अवसर पर आदिवासी खूब नाचते है। गाना,गाते हें
ठिठौली करते है। सामूहिक नृत्य इस पर्व की मुख्य विशेषता है। लेकिन समय के
साथ-साथ यह प्रकृति और मनुष्य के रिश्तों को अभिव्यक्त करने वाला त्यौहार
बन गया है।
गोट प्रथा थीः- ग्रामीण बताते है कि भगोरिया हाटो में पहले महिलाएं समूह में बाजार में आती थी एवं किसी परिचित पुरूष को पकडकर उससे ठिठौली करती थी एवं उसके बदले उस पुरूष से मेले में धूमने एवं झूलने का खर्च लेती थी या पान खाती थी। इस प्रथा को गोट प्रथा कहा जाता था। यह भगौरिया हाट की परंपरा मानी जाती थी।
भगोरिया
पर्व को लेकर किवदन्तियों के अनुसार भगोर किसी समय अंचल का प्रसिद्ध
व्यापारिक केन्द्र हुआ करता था और यहां के ग्राम नायक द्वारा एक बार जात्रा
का आयोजन किया गया। जिसमें आस पास के सभी युवक युवतियों को आमत्रित किया
गया। सज धज कर युवक युवतियों ने हिस्सा लिया। ग्राम नायक ने इस अवसर पर
मेले जैसा आयोजन किया। आये हुए आगन्तुकों में एक सुन्दर एवं कमसीन बाला को
देख कर ग्राम नायक का दिल उस पर आ गया ओर उसने उसे पान का बिडा पेश किया तो
शर्मा कर उसने कबुल कर लिया और ग्राम नायक ने उस कन्या की सहमति से उसका
अपहरण कर लिया याने उसे भगा कर ले गया और इसी परम्परा की शुरूवात को
भगौरिया का नाम दिया गया एक और किवदन्नी के अनुसार शिव पुराण में भी
भगोरिया का उल्लेख आता है जिसके अनुसार भव एवं गौरी शब्द का अपभ्रश भगोरिया
के रूप में सामने आया है। भव का अर्थ होता है शिव और गौरी का अर्थ पार्वती
होता है।-दोनों के एकाकार होने को ही भवगौरी कहा जाता है। अर्थात फाल्गुन
माह के प्रारंभ में जब शिव ओर गौरी एकाकार हो जाते है तो उसे भवगौरी कहा
जाता है। और यही शब्द अप्रभंश होकर भगोरिया के नाम से प्रचलित हुआ है।
होली पर्व के सात दिन पूर्व से जिस ग्राम एवं नगर में हाट बाजार लगते है
उसकों भगोरिया हाट कहा जाता है। भगोरिया पर्व,में आदिवासियों द्वारा गल
देवता की मन्नत लेकर सात्विक जीवन व्यतित किया जाता है, जमीन पर सोते है
तथा ब्रहमचर्य व्रत का पालन करते है तथा इन भगोरियो में सफेद वस्त्र लपेट
कर शरीर पर पीली हल्दी लगा कर तथा हाथ में नारियल लेकर आते है। गल देवता की
मन्नत लेकर सात दिन तक उपवास परहेज करते है एवं होलिका दहन के दूसरे दिन
गल देवता को जो लकड़ी का बना लगभग 30-40 फीट ऊँचा होता है। उस पर मन्नत वाला
व्यक्ति चढ जाता है। एवं उसे अन्य व्यक्तियों द्वारा रस्सी से उपर धुमाया
जाता है। इसी प्रकार मन्नत उतारते है। भगोरिया पर्व का वास्तविक आधार देखे
तो पता चलता है कि इस समय तक फसले पक चुकी होती है तथा किसान अपनी फसलों के
पकने की खुशी में अपना स्नेह व्यक्त करने के लिये भगोरिया हाट में आते है।
भगोरिया हाट में झुले चकरी, पान,मीठाई,सहित श्रृंगार की सामग्रिया,गहनों आदि की दुकाने लगती है जहां युवक एवं युवतियां अपने अपने प्रेमी को वेलेण्टाईन की तरह गिफ्ट देते नजर आते हैं। आज कल भगोरिया हाट से भगा ले जाने वाली घटनायें बहुत ही कम दिखाई देती है क्योकि शिक्षा के प्रसार के साथ शहरी सभ्यता की छाप लग जाने के बाद आदिवासियों के इस पर्व में काफी बदलाव दिखाई दे रहा है।
भगोरिया हाट में झुले चकरी, पान,मीठाई,सहित श्रृंगार की सामग्रिया,गहनों आदि की दुकाने लगती है जहां युवक एवं युवतियां अपने अपने प्रेमी को वेलेण्टाईन की तरह गिफ्ट देते नजर आते हैं। आज कल भगोरिया हाट से भगा ले जाने वाली घटनायें बहुत ही कम दिखाई देती है क्योकि शिक्षा के प्रसार के साथ शहरी सभ्यता की छाप लग जाने के बाद आदिवासियों के इस पर्व में काफी बदलाव दिखाई दे रहा है।
आभूषणअलंकरण अपना विशेष महत्व रखता है। सामान्यत: भील स्त्री पुरूष विविध प्रकार के गहने पहनते हैं। ये गहरे कथीर , चाँदी और कांसे के बने होते हैं। जिनमें से भी कथीर का प्रचलन सर्वाधिक है। आज के वर्तमान संदर्भो में जहां पारम्परिक आदिवासी आभूषणों को आधुनिक समाज ने फैशन के नये आयामों के रूप में स्वीकार कर लिया है तो आदिवासी शिल्पों में उसका महत्व और अधिक हो जाता है। आदिवासी संस्कृति के अनुरूप कमर में काले रंग का मोटा घागा (बेल्ट नुमा) पहनाए जाते हैं। स्त्री के पैरों में कड़ला, बाकडिया, रमजोल, लंगरलौड, नांगर, तोडा, पावलिया, एवं पैरो की अंगुलियों में बिछिया जो कि भीली महिलाओं के सौभाग्य के प्रतीक आभूषण होते हैं, धारण करती है।
गले में तागली, हंसली या गलसन (मोतियों की माला), जबरबंद (पैसों की माला), कानों में बालियां, टोकडी, मोरफैले, झांझऱया(एक गोल रिंग में गोल गोल कथीर के छल्ले), हाथ में बाहरिया, हठका, करोंदी, कावल्या (कांच की चूडिया),हाथसांकरी, भुजा में बास्टया (बाजूबंद), हठके, हाथ की अंगुलियों में मुंदडी, सिर पर बोर राखडी (छिवरा), झेला (चाँदी की लडियों वाला सांकल),बस्का (चाँदी या कथीर के चिमट) आदि पहने जाते हैं। इसी तरह पुरूषों के हाथों में बौहरिया,कमर में कंदोरा, कानों में मोरखी, गले में तागली पहनाई जाती है। पुरूष कानों में मूंदड़े, टोटवा, गले में बनजारी या सांकल, हाथ में नारह-मुखी(चाँदी के कड़े), भुजा में हठके तथा पाँव में बेडी पहनते हैं।
कहा तो यह भी जाता कि भगोरिया भव अर्थात भगवान शंकर व गौरी अर्थात पार्वती
के अनूठे विवाह की याद में उस विवाह की तर्ज पर भवगौरी अर्थात भगोरिया नाम
से अब तक मनाया जाता है। भगवान शंकर का पुरूषार्थ व प्रणय ही इसी कारण से
इसके मुख्य अवयव भी रहे हैं। बहरहाल आदिम संस्कृति की उम्र वे तेवर से जुड़े
होने के कारण भगोरिया आदिवासी वर्ग की महत्वपूर्ण धरोहर है । इसे उतनी ही
पवित्रता से देखा व स्वीकार किया जाना चाहिए। जिस पवित्रता के साथ किसी भी
संस्कृति का वर्तमान अपने अतीत को स्वीकार करता है। इसी में भगोरिए के हर
स्वरूप की सार्थकता भी है।
ताड़ी की खुमारी में डूबे ग्रामीणों की कुर्राटी की आवाज सुनाई देती है। युवकों की अलग-अलग टोलियां सुबह से ही बांसुरी-ढोल-मांदल बजाते मेले में घूमते हैं। वहीं, आदिवासी लड़कियां हाथों में टैटू गुदवाती हैं। आदिवासी नशे के लिए ताड़ी पीते हैं। हालांकि, वक्त के साथ मेले का रंग-ढंग बदल गया है। अब आदिवासी लड़के परम्परागत कपड़ों की बजाय अत्याधुनिक परिधानों में ज्यादा नजर आते हैं। मेले में गुजरात और राजस्थान के ग्रामीण भी पहुंचते हैं। हफ्तेभर काफी भीड़ रहती है।पर्यटन विकास निगम द्वारा लगाया जाता है टेंट विलेजभगोरिया मेले में आने वाले विदेशी पर्यटकों हेतु पर्यटन विकास निगम द्वारा आलीराजपुर जिले के सोंडवा गांव में टेंट विलेज बनाया जाता है ।
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